कुम्भ मेला और प्रवासी भारत- ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्व, विश्व गुरु की कल्पना
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- 06:05 AM, Feb 06, 2019
- Satish Kumar
भूमिका
१८८५ में कुम्भ मेला को देख़ने आए मार्क ट्विन, प्रसिद्ध ब्रिटिश कहानीकार ने कहा था कि कुम्भ अद्भुत संगम है लोगो के विश्वास और भारत की एक अलग पहचान का, जिसे सम्भवतः गोरे चमड़ी के लोग भौतिकवादी नजरिये से नहीं समझ पाएंगे. २०१९ का कुम्भ मेला कई मायनो में भारत की अन्तराष्ट्रीय छवि को एक धर्मगुरु के रूप में स्थापित करने में सार्थक होगी. इसके आध्यातिमकता के साथ नयी आधुनिक सोच को भी विकसित किया गया है. ३२०० हेक्टेयर में १२ से १५ करोड़ लोग ५० दिनों तक आयोजित कुम्भ में आकर डुबकी लगाएंगे. भारत के सन्दर्भ में दुनिया में कई भर्म फैलाने की कोशिस की जाती रही है कि हिन्दू अनुष्ठानो में बड़े पैमाने मर गंदगी फैली होती है. यह धर्म जातियों और कुनबों में बटा हुआ है, यहाँ पर सामजिक और लैंगिंग समानता जैसी कोई सुध बुध नहीं है, सब कुछ ऐसे ही चलता रहता है. संभवतः २०१९ का कुम्भ इन सारी गलतफमियों को दूर करने का प्रयास करेगा. तक़रीबन १०५ देशो २ लाख से ज्यादा विदेशी श्रद्धालु इस महाकुम्भ को देखने भारत आएंगे. इस महान गौरवशाली परम्परा को कलमबद्ध करने की योजना भी सरकार के द्वारा बनायीं गयी है. केंद्र और राज्य सरकार कुम्भ मेला के आयोजन के माध्यम से भारत के धार्मिक धरोहर को स्थापित करने की कोशिस की जा रही है. भारतीय सामाजिक विज्ञानं अनुष्ठान (आई.सी,एस एस .आर) के मेंबर सेक्क्रेटरी प्रोफ वी.के मल्होत्रा का मानना है कि इस अद्भुत आध्यात्मिक आयोजन का एकेडिमिक विश्लेषण विभिन्न मनको पर होना जरुरी है, दुनिया के सामने एक विकसित भारत की पहचान को रिसर्च में द्वारा स्थापित करना भी इस संघठन की सोच है.
कुंभ का अर्थ होता है घड़ा। इस पर्व का संबंध समुद्र मंथन के दौरान अंत में निकले अमृत कलश से जुड़ा है। देवता-असुर जब अमृत कलश को एक दूसरे से छीन रह थे तब उसकी कुछ बूंदें धरती की तीन नदियों में गिरी थीं। जहां जब ये बूंदें गिरी थी उस स्थान पर तब कुंभ का आयोजन होता है। उन तीन नदियों के नाम है: गंगा, गोदावरी और क्षिप्रा। अर्ध का अर्थ है आधा। हरिद्वार और प्रयाग में दो कुंभ पर्वों के बीच छह वर्ष के अंतराल में अर्धकुंभ का आयोजन होता है। पौराणिक ग्रंथों में भी कुंभ एवं अर्ध कुंभ के आयोजन को लेकर ज्योतिषीय विश्लेषण उपलब्ध है। कुंभ पर्व हर 3 साल के अंतराल पर हरिद्वार से शुरू होता है। हरिद्वार के बाद कुंभ पर्व प्रयाग नासिक और उज्जैन में मनाया जाता है। प्रयाग और हरिद्वार में मनाए जानें वाले कुंभ पर्व में एवं प्रयाग और नासिक में मनाए जाने वाले कुंभ पर्व के बीच में 3 सालों का अंतर होता है। यहां माघ मेला संगम पर आयोजित एक वार्षिक समारोह है। सिंहस्थ का संबंध सिंह राशि से है। सिंह राशि में बृहस्पति एवं मेष राशि में सूर्य का प्रवेश होने पर उज्जैन में कुंभ का आयोजन होता है। इसके अलावा सिंह राशि में बृहस्पति के प्रवेश होने पर कुंभ पर्व का आयोजन गोदावरी के तट पर नासिक में होता है। इसे महाकुंभ भी कहते हैं,
ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्व
प्रयागराज में आयोजित कुंभ मेला दुनियाभर के लोगों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। दुनिया के अलग-अलग हिस्से से लोग पहुंच रहे हैं। कुंभ मेले में साधु संत भी बड़ी संख्या में पहुंचते हैं और वो अपनी एक अलग पहचान पेश करते हुए आकर्षण का केंद्र भी होते हैं। भारतीय सांस्कृतिक और धार्मिक रीतिरिवाज को जानने समझने का ये बेहतरीन मौक़ा होता है और ये भारत की समृद्धशाली धार्मिक एकता का प्रतीक भी है। कुंभ मेले की शुरुआत कब हुई और किसने इसका आयोजन शुरू किया, इतिहास के आधुनिक ग्रंथों में इसकी कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। लेकिन इसका जो लिखित प्राचीनतम वर्णन उपलब्ध है वह सम्राट हर्षवर्धन के समय का है, जिसे चीन के प्रसिद्ध तीर्थयात्री ह्वेनसांग ने लिखा था। सदियों से इस पर्व पर एकत्रित होने के लिए किसी निमंत्रण की आवश्यकता नहीं पड़ती है और लोग अपने आप लाखों और करोड़ों की संख्या में कुंभ पर्व पर प्रयाग में संगम तट पर एकत्रित हो जाते हैं। शंकराचार्य ने सनातन धर्म की रक्षा के लिए संन्यासी संघों का गठन किया था। बाहरी आक्रमण से बचने के लिए कालांतर में संन्यासियों के सबसे बड़े संघ जूना आखाड़े में संन्यासियों के एक वर्ग को विशेष रूप से शस्त्र-अस्त्र में पारंगत करके संस्थागत रूप प्रदान किया। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार ग्रहों का शुभाशुभ फल मनुष्य के जीवन पर पड़ता है। बृहस्पति जब विभिन्न ग्रहों के अशुभ फलों को नष्ट कर पृथ्वी पर शुभ प्रभाव का विस्तार करने में समर्थ हो जाते हैं, तब उक्त शुभ स्थानों पर अमृतप्रद कुंभयोग अनुष्ठित होता है।अनादिकाल से इस कुंभयोग को आर्यों ने सर्वश्रेष्ठ साक्षात मुक्तिपद की संज्ञा दी है। इन कुंभयोगों में उक्त पुण्य तीर्थस्थानों में जाकर दर्शन तथा स्नान करने पर मानव कायमनोभाव से पवित्र, निष्पाप और मुक्तिभागी होता है- इस बात का उल्लेख पुराणों में है। यही वजह है कि धर्मप्राण मुक्तिकामी नर-नारी कुंभयोग और कुंभ मेले के प्रति इतने उत्साहित रहते हैं।
कूटनीतिक महत्व
२०१५ में योग को स्थापित कर भारत ने पहला कदम सांस्कृतिक कूटनीति को स्थापित करने में सफल रहा. चीन पिछले कई वर्षो से धर्म से आध्यात्मिक अंश को निचोड़कर एक ऐसी ब्यासस्था को स्थापित करने की कोशिस में है जहाँ पर कलह के सिवा और कुछ नहीं है. कारण चीन की ६० फीसदी आबादी नास्तिक है, धर्म में उनका विश्वास नहीं है. इसलिए बौद्ध धर्म का महा समेल्लन आयोजित कर चीन अपनी सैनिक फन को फैलाना चाहता है. शीत युद्ध के दौरान पश्चिमी शक्तियों ने भी मानव समाज के लिए अनेको मुशीबते पैदा की. संस्कृति के नाम पर भौतिक शक्तियों का प्रदर्शन होता रहा. जातीय युद्ध और एक दूसरे से अलग की पहचान सिद्धांत को बढ़ावा दिया जाता रहा. समाज रंग, भाषा और छेत्र के आधार पर बटा हुआ है. फिर हंटिंग्टन ने धर्म और सभ्यता के आधार पर दुनिया को बाटने की नयी थ्योरी दे डाली. ऐसे बाटे हुए मौहाल में भारत की आध्यात्मिक प्रेरणा ही दुनिया को एक कड़ी में जोड़ सकता है. इस जोड़ को कारगर बनाने में इस कुम्भ मेला का महत्वपूर्ण योगदान होगा. यह महज लोगो की अनयाश भीड़ नहीं है. यह एक होने की प्रवर्ति है जहा पर हर अंतर होली डुबकी के साथ छुमंतर हो जाता है.
प्रधानमत्री मोदी के कार्यकाल में सांस्कृतिक कूटनीति ने भारत के जकरण को तोड़ने की सार्थक प्रयास किया है. दुनिया दिव्तीए विश्व युद्ध के बाद भी लहूलुहान है. अगर २१ शताब्दी में चीन के फार्मूले की अंतराष्ट्रीय ब्यस्था बनती है तो वह और ही कष्टदायक होगी. पिछले दिनों अमरीका के द्वारा पेंटागन रिपोर्ट में यह कहा गया की चीन का 'वन बेल्ट रोड' दुनिया को जोड़ने की बजाये तोड़ने की कोशिस करेगा. जबकि भारत की प्रेरणा दुनिया को एक आयाम में बांधने की होगी. इसलिए कुम्भ के अध्यातिमिक और इससे जुडी हुई कॉस्मिक शक्तियों का प्रचार दुनिया में जरुरी है. भारत को धर्मगुरु बनाने का रूट भी यही है. महज आर्थिक और सैनिक सजावट के जरिये उस मुकाम पर नहीं पहुँचा जा सकता. पिछले ६ दशकों में हमने पश्चिमी सिधान्तो पर चलकर अपनी पहचान को धूमिल करते रहे. आज अगर आगाज हुआ है तो इसका प्रचार भी जरुरी है.
विश्व गुरु की परम्परा
विश्व की राजनीति नेशन-स्टेट पर केंद्रित रही है. दुनिया में जब से यह ब्यस्था बानी है, खूब खून खराबा हुआ है. कारण विश्व राजनीति के नियम हिंसक शक्तियों के मापदंड पर बनाये गए और लागू किये गए. चाहे १९ शताब्दी का ब्रिटिश साम्राज्य रहा हो या २० वी शताब्दी का अमेरिकी अधिपत्य या २१ वी शताब्दी में चीन की बिसात स्थापित हो, हर युग में शोषण और आर्थिक और सामरिक उलटफेर ही दुनिया में देखी गयी. लेकिन भारत की सोच और उपनिषद का ज्ञान एक ऐसे नए दुनिया की बात करता है जिसमे छल-कपट नहीं होगा, और न ही आर्थिक शोषण, सामूहिक हित और मानव कल्याण के तर्ज पर दुनिया की बनावट होगी. तिब्बत के धर्मगुरु दलाईलामा का मानना है की हिन्दू संस्कृति में ही केवल वह तत्व है जो पूरी दुनिया को एक साथ लेकर छल सके. वायेशुद्धौ कुटुंबकम के सिद्धांत में वह ज्ञान है जो पुरे विश्व को एक मानती है. भारत की ज्ञान मीमांसा है कि दूसरे कि पीड़ा को हम अपना मानते है. अमेरिकी कांग्रेस में भारतीय मूल की तुलसी गब्बार्ड ने कहा की हम ' हिन्दू धर्म में कर्म योग और भक्ति योग का पालन करते है जिसमे जाति और धर्म के आधार पर कोई विद्वेष नहीं होता.' बहुसँस्कृति वाद की परिभाषा भी भारत के उपनिषद में वर्णित है. 'एकम सत्य, विप्रा बहुदा वदन्ति' अर्थात एक ही सत्य को अन्य रूपों में कहा जा सकता है.
भारत के प्रधानमंत्री मोदी ने सयुंक्त राष्ट्र के सम्मेलन भारत की सोच २०१४ में कहा था. दुर्भाग्य है कि भारत के द्वारा पिछले ६५ वर्षो में भारतीए सोच को रखने और स्थापित करने कि कभी कोशिस नहीं कि गयी. आज जब भारत की आर्थिक और सैनिक शक्ति परचम लहरा रहा है तो इस बात की जरुरत है कि भारतीय सोच और दृष्टि को दुनिया के सामने रखे.
विज्ञापन निष्कर्ष
कुम्भ के आयोजन से भारत की सोच विशुद्धौ कुटुंबकम की बात सिद्ध होती है. यह आयोजन अपने आप में मानवता के लिए एक विकप्ल है. जातियों और भौतिक विलाशिता में खंडित दुनिया को एक नए सिरे से जोड़ने की कोशिस है, जहा पर आर्थिक संसाधन के साथ एक जीवन के अर्थ को भी समझने की पहल है. अब तो यूनेस्को ने भी कुंभ मेले को वैश्विक सांस्कृतिक धरोहर घोषित कर दिया है। कुंभ मेले को यह मान्यता यूनेस्को की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षण संबंधी अंतर सरकारी समिति ने प्रदान की है। कुंभ मेला को अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर के रूप में मान्यता प्रदान करने की सिफारिश करते हुए विशेषज्ञ समिति ने कहा था कि यह पृथ्वी पर तीर्थयात्रियों का सबसे बड़ा शांतिपूर्ण जमावड़ा है।
प्रधानमंत्री ने प्रवासी भारत के आयोजन को कुम्भ से जोड़ कर भारत कि सांस्कृतिक विरासत को दुनिया के सामने रखने की बेहतरीन कूटनीतिक प्रयास किया है. अगर २१वी शताब्दी में शक्ति स्तान्तरण एक ऐसे देश के हटो में जाता है, जहां की ६८ फीसदी आबादी नास्तिक हो, जो धर्म और ईश्वर में विश्वास नहीं करती हो, अनुमान लगाना सहज हो जाता है कि उस दुनिया कि रंगत कैसी होगी. इसलिए भारत की आर्थिक और सामरिक शक्ति की विवेचना से ज्यादा जरुरी है कि भारत के उन मुलभुत सांस्कृतिक सिद्धांतो कि चर्चा हो जिसमे मानव कल्याण का गुड़ छिपा हो. सम्भवतः यह काम इस प्रधानमंत्री से बेहतर कोई नहीं कर सकता. प्रधानमंत्री मोदी कि कार्यप्रणाली में महर्षि ऑरबिंदो की दृष्टि है जो भारत को आध्यात्मिक विश्व गुरु बनाने की सोच की बात कही थी.
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