मोहन भगवत के बयान को तोड़ मरोड़ के पेश करने राजनीती
- In Politics
- 10:55 PM, Feb 24, 2018
- Satish Kumar
पिछले दिनों राष्ट्रीय स्वयं सेवक प्रमुख मोहन भागवत के बयान को तोड़ मरोड़कर पेश किया गया. आर.एस.एस प्रमुख ने सेना की कर्मठता पर कोई प्रश्न नहीं उठाया. संघ के आधिकारिक प्रवक्ता डॉ. मोहन वैद ने स्पस्ट सब्दो में कहा की " परिस्थितिया आने पर तथा सविधान द्वारा मान्य होने पर भारतीय सेना को सामान्य समाज को तैयार करने में ६ महीने लग जाएंगे लेकिन संघ के युवको को तैयार करने में महज ३ दिन लगेगा. क्योंकि संघ से जुड़े हुए युथ अनुशासित होते है." दरअसल भारत में आज भी मीडिया पर कांग्रेस और वामपंथियों की पकड़ मजबूत है. उनकी नजर में देश की राजनीति उदारवाद वामपंथ की हो सकती है लेकिन दक्षिणपंथ उदारवादी नहीं बन सकती. बसह संसद में हुआ था. कांग्रेस प्रमुख और प्रधानमंत्री के बीच. प्रधानमंत्री ने आम जनता की भावनाओ को संसद में रखा था. आज भी देश हर दिन कांग्रेस के पाप के घड़े से रिस रहे जहर का निशाना बन रह है. हर दिन लोग कश्मीर में मारे जा रहे है. वोट बैंक की राजनीति के तहत देश की सुरक्छा और विदेश नीति बनायीं गयी चकमा शरणार्थीओ के लिए भारत के पूर्वी राज्यों का अभ्यारण बना दिया गया. रोहिंग्या को भी बसाया गया. जब मोदी की सरकार ने २०१७ में इस ताला जड़ दिया तो वामपंथियो और कांग्रेस ने खूब हो हल्ला किया.
आजादी के बाद राष्ट्र निर्माण की नीव जिस तरह से डाली गयी और भारत को एक नयोदित देश कह कर पुकारा गया. अर्थात भारत का जन्म ही १९४७ में हुआ. धर्म, संस्कृति, समाज और राष्ट्र का विद्रूपीकरण कर एक राष्ट्र राज्य के रूप जाने लगा. राष्ट्र राज्य के रूप में स्थापित किया गया, जिसकी नीव पश्चिमी सोच पर टिकी थी. जहा पर संस्कृति को धर्म मन लिया गया. अर्थात हिन्दू संस्कृति जो इस देश की विराशत थी वह अन्य बाहरी अकर्मणकारियो द्वारा लाये गए धर्मो के श्रेणी खड़ा कर दिया गया. बाद में चलकर वोट की राजनीति ने हिन्दू संस्कृति को इस रूप में पेश किया गया की यह अन्य धर्मो से निम्न है. राष्ट्रीय दर्ष्टि से हिन्दू संस्कृति की पहचान को निरंतर धूमिल करने की कोशिश की जाने लगी.. विवेकानंद और मदनमोहन (महा मना को साम्पर्द्यिक कहा गया. मोदी की सरकार ने इतिहास में किये गए भूलो को सुधारने की पहल शुरू की. देश को एक परिवार के जकरण से निकलने की कवायद शुरू की. चुकी वामपंथी ब्यवस्था गाँधी परिवार के गमले में उपजे हुए खर पतवार थे इसलिए उनकी निष्कंटक जीवन चर्या पर रोक लग गयी. उनकी हताशा और बेचैनी स्वाभाविक थी. उनोहने गोलबंद होकर सरकार पर निशाना साधने लगे.
अगर प्रधानमंत्री ने यह कहा कि देश कि सुरछा को गाँधी नेहरू परिवार ने हासिये पद धकेल दिया है तो इसमें अतिश्योक्ति कहा है? भारत कि विदेश नीति धर्म निर्देशित बनायीं जाने लगी. जब आजाद भारत में इजराइल के साथ सम्बन्ध बनाने की पहल की तो नेहरू के एक मंत्री अब्दुल कलम ने यह कहकर उसको रोक दिया की इससे पाकिस्तान नाराज हो जाएगा और हमारी मुस्लिम तबका की भावनाये भी आहात होगी. प्रधानमंत्री ने यह भी कहा की पटेल हमारे प्रथम प्रधानमंत्री होते तो देश की इतनी दुर्गति नहीं होती, इसमें क्या गलत है.
संसद में उठे इस विवाद को अगर निष्पक्ष अकादमिक नजरिये से नापा तौला जाए तो प्रधानमंत्री द्वारा कहे गये शब्दों में बल है, सच्चाई है जिसे छिपाया गया है। जब मोदी ने कहा कि यह देष कांग्रेस के पाप से आज भी झुलसा हुआ है, हर दिन कुछ-न-कुछ ऐसा होता है जिसकी नींव 1947 में खोदी गई थी। बहुतेरे इसके उदाहरण है। यहाँ पर जिक्र चंद घटनाओं और प्रसंगो की जरूरी है जिससे देष के आम नागरिकों को महरूम रखा गया था। पहला, कष्मीर का मुद्दा। पिछले एक महिने में हमारे कई जवान शहीद हुए। निरंतर आतंकवादी हमले और पाकिस्तानी घुसपैठ जारी है। 70 वर्षों में जम्मू-काष्मीर का मसला कांग्रेसी राजनीति में इतना पिस चुका है कि उसका सुनयोजित हल खोज पाना अत्यंत ही मुष्किल काम है। लेकिन यहा ं पर कुछ बुनियादी प्रष्नों को पूछा जाना समयानुकूल है। पहला, नेहरू जी ने जम्मू-कष्मीर को भारत में विलय की शतों से क्यो जकड़ दिया ? जबकि वहा ं के महाराजा परिस्थितियों के कारण स्वतः और स्वाभाविक रूप से भारत में विलय के लिए राजी थे ? नेहरू क्या सोचकर जम्मू-कष्मीर के मुद्दे को लेकर संयुक्त राष्ट्रसंघ की चौखट पर गुहार लगाने चले गए ? क्या इससे देष का भला हुआ ? जब भारतीय सेना ने पाकिस्तानी सेना को ललकारते हुए मुजफ्फराबाद, ग्रामीण पुंछ और गिलगित को अपने कब्जें में कर लिया था तो अचानक युद्ध विराम की घोषणा कर एक अलग पाकिस्तान अधिकृत कष्मीर बनाने की छूट क्यों दी गई ? इतना ही नही जब गृह मंत्री पटेल 64 करोड़ रूपये पाकिस्तान को नहीं देने की जिद पर अड़ गए थे तो क्यों नेहरू ने पटेल के विरोध में एक अलग मोर्चा खोल दिया ? गांधी जी के दबाव में यह राषि पाकिस्तान को दी गई। क्यों नेहरू जी चीन के प्रधानमंत्री को भारत बुलाकर भारतीय नृत्या का लुत्फ उठाने का मौदा दिया ? तिब्बत किस तरीके से भारतीय प्रभाव से फिसलकर चीन के चंगुल में अटक गया ? किस तरीके से भारतीय विदेष नीति राष्ट्र हित से अलग हटकर वोट बैंक की तराजू पर मापी जाने लगी ?
यदि प्रधानम ंत्री ने इन तमाम खामियों को बटोरकर यह कहा कि कांग्रेसी नीतियों की वजह से खंज्जर हमारे देषवासियों को झेलनी पड़ रही है तो इसमें अतिष्योक्ति क्या है ? पटेल ने गृहमंत्री की हैसियत से दो टूक शब्दों में यह जवाब दिया था कि जब कोई देष हमारे साथ युद्ध की स्थिति में है तो उसे हम पैसा क्यों दे ? संधि हुई थी तो शांति और व्यवस्था को लेकर हुई थी, तब तय हुआ था कि भारत 64 करोड़ की राषि मुहैया करवाएगा। लेकिन पाकिस्तान इस पैसे से हथियारों की खरीद-फरोख्त कर हमें ही मारने मिटने पर उतारू है। कश्मीर की जनता मुस्लिम थी और राजा हिन्दू, इसलिए नेहरू ने अंतरराष्ट्रीय संत गुरू बनने के चक्कर में कष्मीर का बंटाधार कर दिया। दूसरी तरफ अंग्रेजियत के अतिषय प्रेम ने कष्मीर मुद्दे को अनतर्राष्ट्रीय कलेवर पहना दिया। बाद की विष्व राजनीति की धुंध में पाकिस्तान को अमेरिकी मदद की तलब थी, वह भी मिलनी शुरू हो गई। बाद में चीन ने पाकिस्तान की बांह थाम ली। पाकिस्तान ने चीन को कष्मीर मुद्दे का मुख्य सिपहसलार बना दिया। इसके बदले एक बड़ा हिस्सा चीन को दे दिया। यह सबकुछ दृष्टि दोष की वजह से पैदा हुआ जो कांग्रेस की देन थी। उसके उपरांत इंदिरा गांधी के द्वारा चकमा शरणार्थियों के लिए भारत के ऊत्तर पूर्वी राज्यों को रैन बसेरा बना दिया गया। तकरीबन हर उत्तर पूर्वी राज्यों की जनसांख्यिकी बदलने लगी। विद्रोह और विद्वेष की चिंगारी फैलने लगी। इसके अतिरिक्त और कई उदाहरण है। नेपाल के राजा त्रिभुवन भारत के साथ मिलना चाहते थे। मिलने-मिलाने की बात तो दूर की रही, नेपाल तक भारत विरोधी बन गया। सत्ता के गलियारों में भारत विरोध की महत्वपूर्ण इकाई नेपाल में बनकर तैयार हो गई। कौन जिम्मेदार है इसके लिए ? आज नेपाल अगर भारत से संयमित दूरी की बात करता है तो इसके पीछे भारत की दोषपूर्ण नीति रही है जिसे पल्लवित और पुष्ठित कांग्रेस की सरकार ने किया। तिब्बत को हड़पने के बाद चीन की सेना नेपाल तक पहुंच गई। नेपाल की सीमा भारत के चार बड़े राज्यों से मिलती है। जो आसन भारत का अंग्रेजों के दौरान था वह टूटता चला गया, हमारे प्रधानमंत्री चीन से प्रेम कम भयभित ज्यादा दिखने लगे। यह कारवां तकरीबन 2014 तक चला। मोदी ने पिछले वर्ष ‘‘देश के सामने यह प्रश्न याचक की तरह आज भी सामने खड़ा है. ४ वर्षो के कार्यकाल में देश की बहुमुखी छिद्रो वाला सुरक्छा ब्यस्था को ठीक कर देना संभव नहीं है. इसकी शुरुवात की जा चुकी है. इसमें समय लगेगा. पूर्व प्रधामंत्री मनमोहन सिंह ने अपने कार्यकाल के अंतिम चद दिनों में यह कहा था कि भारत अपनी कोई सामरिक संस्कृति नहीं है, वे सच कह गए थे, लेकिन इसके लिए दोषी कौन है, चीन के मसले पर कांग्रेस के दो मंत्री अलग अलग राग अलापते रहे. कोई चीन को खतरा बताता तो कोई चीन को मित्र कहकर बुलाता. मोदी कि सरकार ने अपनी विदेश नीति को एक सामरिक ढांचे में बांध दिया है.
मेक इन इंडिया, और लुक एक्ट पालिसी इसके बेहतरीन उदहारण है. पटेल ने १९४८ में अमेरिका के तरफ उन्मुख होने कि सलाह नेहरू को दी थी, लेकिन नेहरू अपनी जिद पर भारत को अमेरिका विरोधी बना दिया, जिसका खामियाजा भारत को ६ दशकों तक झेलना पड़ा. कई नियामक और प्रसंग है जिसकी चर्चा देश में होनी चाहिए. देश की जनता प्रबुद्ध है. २०१९ चुनाव राष्ट्र की सुरक्छा और अश्मिता के लिए जरुरी है. देश की जनता को जानने का पूरा हक़ है की गलतिया कब और क्यों हुई है. इसकी कीमत देश ने कैसे चुक्या है और आज भी चूका रहा है. इस ब्यूह रचना से निकलने के रास्ते कहा से निकलती है, कौन हमें निकाल सकने में सक्छम है. इन सारे मसलो पर चर्चा होनी चाहिए.
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