भारत में पर्यटन और उसकी अनेक चुनौती
- In Travel
- 09:28 PM, Mar 23, 2019
- Viyansh Naraniya
आजकल के युवावर्ग ने एक नियम बना लिया है। कोई भी अवकाश हो तो कहीं बाहर घूमने का। जिसमे "ट्रैकिंग" चरम पर है। साथ ही साथ आज के इस इंटरनेट की क्रांति के युग में जीवन यापन कर रहा युवा अपनी चित्रो और सेल्फी के पीछे इस कदर पागल है कि उसे अपने द्वारा फैलाये जंझाल का कोई अनुमान नहीं है। किसी भी ट्रैकिंग पर जाने की योजनाएं तो हम हर साल बनाते है। पर उसके वहाँ जाने औऱ आने में हमारे द्वारा प्रकृति को किए हनन का विचार हमे नहीं खटकता है। और शायद इसी ही कारण हमारे देश या विश्व भर में आने वाली हर आपदा को हम किसी दैवीय आपदा से जोड़ इसके होने के पीछे के कारणों को बिना जाने बस भूल जाना ज्यादा ठीक समझते है।
कोई भी व्यक्ति जब लहोत्से और अमु डबलाम की पहाड़ियों, हिमालय से पार उतरती अलकनंदा की ओट में बैठ, या कैलाश मानसरोवर यात्रा करते जब उसके सौंदर्य को निहारता है। तो वो एक और सौंदर्यता से परिचित होता है, और वो है हमारे ही द्वारा फैलाये "कचरे के ढेर" से। ये ढेर उन्ही शिक्षित और साहसी जनता का है जो महीनों अपने 2×2 के कमरे में बैठ इस सपने को संजोती है। और जब उनके ये सपने पूरे हो जाते है तो एक सौगात, अपनी निशानी छोड़ जाती है इन बर्फ़ीली विराट पहाड़ियों के लिए “ये कचरे का ढ़ेर”।कहीं पानी की बोतलें है तो कहीं बियर की, कहीं आपको प्लास्टिक के इंस्टेंट नूडल्स वाले पैकेट मिल जाएंगे, जो आपके बदलते युग के साथ बढ़ती तकनीक और पर्यावरण के प्रति संकीर्ण होती सोच के परिणाम है।
घूमने आए यात्रियों के लिए इस दूर दराज से उँगते हुए क्षेत्र में इन वस्तुओं का अंबार छोड़ जाना कोई प्रभाव शायद ही डालता होगा, पर जो प्रकृति का शोषण हर एक बोतल और प्लास्टिक के पैकेट से हो रहा है वो जब एक भयावह स्तिथि उत्पन्न करता है। तो वो हर एक व्यक्ति जब अपने अपने घरों में दुबक इस समाचार से परिचित होता है कि हिमालय में अब तक का सबसे विनाशकारी भूकंप, मृतको की संख्या हज़ारो में। तो उसका मन जरूर #RIP का एक स्टेटस अपलोड करके इस फैलाये मायाजाल से छुटकारा पा लेता होगा। हिमाचल प्रदेश की राजधानी व देश के रमणीय स्थलों में से एक शिमला आज कुछ ऐसी ही मानवीय समस्याओं से गुज़र रहा है। वहाँ के निवासियों के लिए पीने के पानी की समस्या विकराल रूप ले चुकी है। नेपाल जो कि आज भी अपनी ग़रीबी और अनेक बीमारियों से जूझ रहा है, हर साल दर साल अपने सालाना आय में बढ़ोतरी तो कर रहा है, पर्यटन को बढ़ावा तो दे रहा है, पर इस समस्या का निवारण के लिए वहाँ की सरकार के पास दो मिनट का भी समय नही है। और ऐसे ही चलते हालात के कारण अब वो दिन दूर नहीं है जब 2011 में आए भूकंप के झटके प्रायः देखने को मिले।
2013 में केदारनाथ त्रासदी, 2005 में तंगधार का भूकंप प्रकृति व हिमालय पर हमारे द्वारा किए गए नुकसान का ही प्रत्युत्तर है। और जैसे जैसे समय का चक्र बढ़ रहा है इन पर हमारे द्वारा होने वाले अत्याचारों की संख्या भी बढ़ते जा रही है। संसाधनों पर लगाम व पुर्नचक्रण को बढ़ावे की बजाय हमे ही आज इन क्षेत्रों में भी पंचसितारा होटलों की जरूरत है, असल मायने में जब हम हमारे घर, वातावरण को छोड़ कुछ नया देखने की बात सोच यहाँ भृमण पर आते है तो क्यों चंद दिन के लिए हम अपने आराम स्थल का साथ नही छोड़ पाते है। हमारे जीभ के स्वाद सात्विक भोजन से तालमेल नही बिठा पाते है। आप इन अनजान पहाड़ियों पर जब बने आवासों में अपने दिन गुजारते है तो पाते है यहाँ की असल जिंदगी को, जो कि अब शायद बची भी है या नहीं।
सरकारें आती है जाती है, चार धाम यात्रा को और सरल करने की योजना बनाती है, पर इसका मतलब मात्र उन्हें वहाँ पर्यटन से होने वाली आय से है। वहाँ के निवासियों के दर्द समस्याओं से, न जाने वाले पर्यटकों को कोई फर्क पड़ता है और न किसी सरकार को। पर जब भी ऐसी आपदा में मरने वाले बाहरी लोगों की संख्या ज्यादा होती है तो हमे उसका कुछ हद तक अहसास होता है। आज भी कई ऐसे छोटे छोटे संस्थान है जो हर सप्ताहांत में इन पहाड़ो को चढ़ वहाँ से कचरा एकत्रित करके लाते है और उसका सही ढ़ंग से निपटारा करते है। उनके द्वारा एकत्रित किये जाने वाले कचरे में सबसे ज्यादा मात्रा में शराब व बियर की बोतलें होती है जो कि एक ऐसे तबके द्वारा छोड़ी जाती है जो अपने आप को शिक्षित और जागरूक दिखाने की दौड़ में सबसे आगे है।
कचरा संसाधन के उपाय और पुनः चक्रण पर सरकार के साथ ही साथ जाने वाले हर पर्यटक खासकर युवाओं को इस बात पर अमल करना चाहिए। नहीं तो हम हमारे चंद लम्हों के आनंद के चलते एक विराट विश्व धरोहर को ना खो दे।
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